Monday, September 25, 2006

12. दूनो महतो

दूनो महतो अपन गाँव के सरग बनावे ला दिन-रात भिड़ल हलन । ईसरी के कहना हल कि हमनी ढेर दिना से नरक के पिल्लू नियन गाँव में कबकबाइत रहली हे । पहिले जमीदारी हल तऽ बेगारी देते-देते हमनी परसान हली । हड्डीतोड़ मेहनत करीं आउ खायला नोन रोटी भी नऽ मिले । जमीदारी तऽ गेल बाकि मिसिर के जमीदारी अभी चलिए रहल हे । ऊपरे से बइदगिरी आउ झार-फूँक भी खनदनीये चलऽ हे । एहनी से कइसे छुटकारा मिलत ? खदेरन के एगो अलगे जमात हे जे ई घड़ी भी जादू-टोना पोसले लोग के भरमा रहल हे । जुग्गा, दारू, कउड़ी, चोरी-चमारी ई सब तो हमर गाँव के उजार देलक हे । ऊपरे से दू-चार बरस पर सूखा अकाल चलिए आवऽ हे । हमहू ई सब काम करइत-करइत अब थक गेली । जमीदारी हल तब बरमा के बाप से लड़इत-लड़इत केतना बार जेल गेली आउ मार भी खैली बाकि समय रंग लौलक । जमीदारी तऽ गेल बाकि ई सब समाज में फैलल ढोंग आउ लालच, मरनी में खेत बेच के काम किरिया बेटी के बिआहे में तन के कपड़ो बिक जाय । हाय राम ! अभी गाँव के का-का नऽ खैले हे ? ई सब मुँह बवले गाँव के निगलइत जाइत हे । केतना एकर मुँह में समाके अकाले में मर गेलन ।

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