Monday, September 25, 2006

26. रिंग-रिंग के खेल

अबरी रोहन के छुट्टी जल्दीये खतम हो गेल । परसो ओकरा कलकत्ता के करखाना में ज्वाइन कर लेवे ला हल । से ऊ आज सहियेसाँझ से परदेस जायके तइयारी में लग गेल । बाल-बच्चा आउ मेहरारू के कहके गाँव में निकलते हल कि गली में भिखना मिल गेल । ओही जगुन रग्घू एगो फूटल देवार दने घूमके खड़े-खड़े पेसाब करइत हल । रोहन के देखके ऊ गद् से बइठ गेल । फिन भिखना आउ रग्घू के लेके एक तुरी गाँव के दरसन कर लेल चाहलक । ओहनी तीनो नानी टोला घूमइत हलन तो सहियेसाँझ एक जगुन अल्हा गावइत सुनलन । रग्घू से रोहन पूछलक - "इहाँ गीत नाध कातो खतम भे गेल हल हो, ई का होइत हे ?" नरेटा चिर-चिरके एगो गावइत हे आउ दोसरका हाथ बजार-बजारके ढोलक पिटइत हे । अवाज तेज होइत गेल -
डिम-डिम-डिम-डिम डमाक-डमाक
उठ-उठ-उठ-उठ तड़ाक-तड़ाक
आउ सचमुच में गवइया तरुआर लेके खड़ा हो गेल आउ घूमा-घूमाके तरुआर जोर से गावे लगल -
लगल लड़इया गढ़ महोबा में, अल्हा उदल चले उठ धाय ।
छप्-छप् करके तेगा नाँचे, हनहन करे तेज तरुआर ।।
घोड़ा चले टपाटप करके, हाथी के घंटा घहराय ।
बीर पुरुख के हिरदा नाँचे, रूंड मुंड धरती भर जाय ।।
सुनके रोहन डेरा गेल - "रग्घू, इहो गाना हे हो ? लइकन तो सुनके डेरा जायत । ओकर मन पर का असर होयत ?"

******** Incomplete ********

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