Monday, September 25, 2006

35. बेला कि सुक्खू ?

बइसाख घर-घर में आग बरखा के चल गेल । केतना घर उजर गेलन, केतना बिना बैल-गोरु के हो गेलन । नानी टोला के बकरी आउ मुरगी तो साफे हो गेल । गाँव के दखिन भर अहरा पर के चिरारी गोरु-डाँगर के हड्डी से भर गेल जहाँ दिन भर कुत्ता-सियार के साथे गिद्ध माँस नोचइत रहथ । अदमी के समान पर के धुआँ अब सांत हो गेल हल । लगऽ हल कि सउँसे गाँव मुरदघटिया बन गेल हे । कहल जा हे कि दुख सबके जौर कर दे हे । पुरनका बैर-भाव भुला जा हे बाकि नानी टोला के बात कुछ आउ हे । रग्घू के विसवास हे कि ई सब बेमारी डगदर के कारन भेल हे आउ डगदर बोलावे ओला महतो हथ । से इनसाल महतो के खेत पर कब्जा कर लेवे के चाहीं । सूरुज के तो अपन खेत हे नऽ, मनीये-बटइया जोतऽ हथ बाकि इसरी महतो के तो बीस बीघा खेत हे । सबसे जादे उनके ई गाँव में खेत पड़ऽ हे । आउ उनकर बेटा नगीनवाँ सहर में रहऽ हे । से एसो पहिले उनके खेत पर धावा बोले के चाहीं । हमनी तो बेमारी से उजरते ही बाकि उनको आराम से न रहे देब । खेती आउ नोकरी दूनो ? अब ई न चलतइन ।

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